5 मार्च 2009

चमन उजड़ा रहा और फूल खिलते रहे.. कुछ ऐसी ही दशा इस जिले की

 

पिछले लेख की अगली कड़ी में पेश है फतेहपुर का चुनावी इतिहास का आगे का हाल .........

इतिहास के आइने में संसदीय क्षेत्र ने ऐसी तस्वीरें छोड़ी हैं जो इसकी अहमियत व मतदाताओं की उदारवादी सोच को बयां कर रहे हैं। सत्तावन वर्ष के लंबे सफर में पंद्रह लोकसभा चुनाव हुए जिसमें छ: बार जीत कांग्रेस की झोली में गयी। प्रधानमंत्री व केन्द्रीय मंत्री देने की सौगात संसदीय क्षेत्र को मिली। दोआबा का यह क्षेत्र ऐसा चमन रहा जो हरियाली बांटकर स्वयं उजड़ा रहा। इसे राजनीतिक धूमिलपन कहें या फिर उदारवादी चेहरा। यहां के मतदाताओं ने परदेशी बाबू पर ही पसंदगी की मुहर लगायी। अब तक चुने गये ग्यारह चेहरों में मात्र चार लोग ही जनपद की माटी से संसद तक पहुंचने वालों में रहे।

आजादी के बावन व सत्तावन के चुनाव में तो जैसे कि देश में लहर चल रही थी। कांग्रेस प्रत्याशियों ने जीत हासिल की। जनपद के ही रहने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शिवदत्त उपाध्याय को यहां के डेढ़ लाख मतदाताओं ने अपना सांसद चुना। फिर अंसार हरवानी को नेतृत्व को सौंपा। 1962 का चुनाव काफी रोमांचक रहा। बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चायल संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे और उन्हीं के मंत्रिमण्डल में रहे सूचना एवं प्रसारण मंत्री वीवी केशकर फतेहपुर संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी बने। कांग्रेस की चल रही बयार में यह था कि केशकर तो जीतकर संसद पहुंचेंगे ही यहां के मतदाताओं का रुख प्रत्याशी नहीं भांप पाये और हुआ यह कि निर्दलीय गौरीशंकर कक्कड़ जीत गये और केशकर को पराजय का मुंह देखना पड़ा।

सत्तावन वर्ष के संसदीय इतिहास में एक खास बात यह और भी है कि जिले के मतदाताओं ने किसी को हैट्रिक नहीं लगाने दी। अधिकतम दो बार ही मौका दिया तीसरी बार बड़े-बड़े कद्दावर नेताओं का हार का मुंह लेकर ही जाना पड़ा। बोफोर्स मुद्दे को लेकर समूचे देश में लहर पैदा करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह वर्ष 1989 में संसदीय क्षेत्र को ही अपना मुकाम चुना। क्षत्रिय बाहुल्य इस सीट में वीपी का खूब जादू चला तभी तो पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के ज्येष्ठ पुत्र हरिकृष्ण शास्त्री को तीसरी बार पराजित होना पड़ा। वर्ष 1991 में फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संसदीय क्षेत्र का नेतृत्व संभाला। इतिहास के पन्नों में यह याद हमेशा के लिये जुड़ गयी है कि फतेहपुर संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने देश को एक प्रधानमंत्री दिया है। अपनी अस्वस्थता के कारण तीसरी बार वीपी सिंह चुनाव मैदान में तो नहीं आये। पता नहीं वह आते तो यहां के मतदाता तिबारा जिताने के मिथक को तोड़ पाते या नहीं।

पांच विधानसभाओं वाली इस सीट में वर्ष 1980 व 84 में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के पुत्र हरिकृष्ण शास्त्री ने कब्जा किया और वह यहीं का प्रतिनिधित्व करते हुए मंत्रिमण्डल में कृषि मंत्री का भी पद संभाला। विकास के आइने में दस वर्षो के कार्यकाल में उन्होंने बहुत कुछ कर दिखाया, लेकिन तीसरी बार जब वह चुनाव मैदान में उतरे तो वीपी की लहर में विकासवाद का नारा फीका पड़ गया। कांग्रेस से ही पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के बड़े भाई संत बक्स सिंह वर्ष 1967 व 1971 में संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1984 के बाद से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लहर ऐसी मंद पड़ी कि अभी तक नहीं उबर पा रही है। वर्ष 1996 में बसपा प्रत्याशी विशम्भर निषाद जो कि बांदा जनपद के रहने वाले थे को यहां के मतदाताओं ने जीत की माला पहनायी। वर्ष 1998 में विशम्भर निषाद को मतदाताओं ने नकार कर जिले के ही भाजपा प्रत्याशी डा.अशोक पटेल को जीत का ताज पहनाया। 1999 के चुनाव में फिर भाजपा के डा.अशोक पटेल को मतदाताओं ने संसद पहुंचाया। 2004 के चुनाव में भाजपा से डा.पटेल पुन: चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन जनता ने उन्हें तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया और बसपा प्रत्याशी महेन्द्र निषाद को गले लगाया। दूसरे नंबर पर सपा प्रत्याशी अचल सिंह रहे। भाजपा-बसपा के बीच कांटे का संघर्ष वर्ष 1999 में रहा। कौन जीतेगा यह बता पाना मतगणना के अंतिम दौर तक भी मुश्किल था। कई बार आगे-पीछे होकर जीत की ओर बढ़ रहे दोनों प्रत्याशियों को कभी खुश तो कभी गम में होना पड़ा। मात्र एक हजार मतों से भाजपा प्रत्याशी ने अंतत: जीत हासिल की।

पांच दशक से अधिक समय के चुनावी इतिहास में पंद्रह लोकसभा चुनाव में ग्यारह नये चेहरों को जिले के मतदाताओं ने संसद पहुंचाया उसमें से सात परदेशी बाबू हैं जिन्हें यहां की जनता ने पसंद किया। शिवदत्त उपाध्याय, गौरीशंकर कक्कड़, सै.लियाकत हुसेन, अशोक पटेल ही ऐसे प्रत्याशी रहे जो जिले के रहे और चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। इसके अलावा सात अन्य सांसदों ने जो जिले का अलग-अलग समय में प्रतिनिधित्व किया वह गैर जनपद के रहे तभी तो हर चुनाव में विकासवाद के साथ-साथ जिलेवाद का नारा भी बुलंद होता है।

संसदीय इतिहास को याद कर यहां के मतदाता यह कहते हैं कि चमन उजड़ा रहा और फूल खिलते रहे.. कुछ ऐसी ही दशा इस जिले की रही। प्रधानमंत्री व केन्द्रीय मंत्री देने के बाद भी जिले का पिछड़ापन दूर नहीं हुआ। शैक्षिक क्षेत्र हो या फिर औद्योगिक ऐसा मुखौटा नहीं बन पाया कि जनपद के लोग सुविधा संपन्न बन सकें। यहां तक कि सड़क, विद्युत व पेयजल जैसी समस्याओं से बराबर जूझ रहे हैं।

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