1 फ़र॰ 2009

जुगनू जगमग हंस रहे फैला यूं आतंक

 

शांति निकेतन मानव कल्याण समिति एवं यायावर संस्था के संयुक्त तत्वावधान में आवास विकास स्थित सिद्धपीठ मां दुर्गाधाम पार्क में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। जिसमें पधारे कवियों ने रचनाओं के माध्यम से श्रोताओं का मनोरंजन किया।

बसंत पंचमी के मौके पर आयोजित कवि सम्मेलन में अनिल तिवारी निर्झर ने पढ़ा कि-

ठोस से आदमी जब तरल हो गया कीच में आदमी तब कमल हो गया।
केपी सिंह कछवाह कृष्ण ने पढ़ा कि-
डाल-डाल झूम रही यौवन आनंद से, पात-पात रहे डोल खुशी अब अनंत है, आ गया बसंत है।
डा. कृष्णपाल सिंह गौतम के उद्गार थे कि-
साथ मत करो काजल से कालिख लग जायेगी, अरे जुड़ो मत नीच से नीचता आ जायेगी।
श्रवण कुमार पांडेय पथिक बोले- फिर से लौट आयी है पटरी पर गाड़ी तो लोक गीतकार समीर शुक्ल ने पढ़ा-
ईश्वर अल्ला के नाम से जो गदर है खुल्लमखुल्ला ब्वालौ यहिका जिम्मेदार को? तुम या पंडित मुल्ला।
शैलेश गुप्त वीर ने पढ़ा कि-
सूरज भी मद्धिम हुआ फीका पड़ा मयंक। जुगनू जगमग हंस रहे फैला यूं आतंक।
वहीं ज्ञानेंद्र गौरव ने पढ़ा-
एक धरती बंटी दिल बंटे, हम बटे रोज मनहूस दिन आ गया पौ फटे, दर्द कम नहीं यह सायरी के लिये।
डा. मधुलिमा चौहान ने कहा- दर्द मिला लेकिन दर्दो से बदल गयी गीतों की सरगम। डा. बृजमोहन पांडेय विनीत ने पढ़ा-
निज मातृभूमि की पुकार सुन दौड़ पड़े, वीर शिवा जैसा स्वाभिमान हमें चाहिए।
आचार्य पंडित सत्यानंद शुक्ल ने संस्कृत रचना का वाचन किया- प्राचीन संस्कृते: स्याद् राष्ट्रे पुनर्विकासे। डा. रामलखन सिंह परिहार प्रांजल ने पढ़ा-सपनों की अर्थी को ढोते जैसा चाहा उसे जिया। जानकी प्रसाद श्रीवास्तव शास्वत ने पढ़ा-
गुबारों के समंदर में मचलता कारवां हूं मैं, जो कांटों को कुचल डाले ऐसा बागवां हूं मैं।
शिवशरण सिंह चौहान अंशुमाली ने पढ़ा-
बासंती परिधान पहनकर तुम मेरे घर आना, मैं पराग की कणिकाओं से कर दूंगा अभिनंदन।

इसी क्रम में धर्मचंद्र मिश्र कट्टर, विनोद कुमार विनोद, हरीबाबू सिंह राउत, सलीम अहमद शास्त्री, दागनियाजी, भइयाजी अवस्थी करुणाकर, चंद्रशेखर शुक्ल, आनंद स्वरूप श्रीवास्तव अनुरागी, अनूप शुक्ल, अवधेश कुमार द्विवेदी, डा. चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ने अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया। कवि सम्मेलन का संचालन कवि शिवशरण बंधु ने किया।

कोई टिप्पणी नहीं:
Write टिप्पणियाँ